मास्टरजी की माताश्री ती.मथुराबाई फुलंब्रीकर मास्टरजी की प्रथम गुरु थी | उनका नैहर आलंदी में था | वे भगवन विठ्ठल की परम भक्त और संत ज्ञानेश्वर के प्रति प्रगाढ़ आस्था से भरी श्रद्धावान स्त्री थी | पति अर्थात मास्टरजी के पिता गणेशपंत के असमय ही निधन हो जाने से घर-गृहस्थी व बच्चों की सारी जिम्मेदारी मथुराबाई के कन्धों पर आ पड़ी | उन्होंने बड़े ही परिश्रमपूर्वक अपनी गृहस्थी का निर्वाहन किया |
जब कृष्णा छोटे थे तब मथुराबाई घट्टी पीसते समय छोटे कृष्णा को अपनी गोद में बिठाकर ओवी गीतों ( घट्टी पीसते समय गाये जानेवाले लोकगीत ) को गाती थी | कभी उन्हें पौराणिक कथाएं सुनाती | मातृभक्त कृष्णा पर इन संस्कारों का गहरा असर रहा |
माँ मथुराबाई ने ही मास्टरजी के भीतर पनपते शास्त्रीय गायन के प्रति उनके रुझान को समझा और वे उन्हें सवाई गंधर्व के पास ले गई थी | आगे फिर सवाई गंधर्व की सलाह पर वे छोटे कृष्णा को शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा हेतु बखले बुवा के पास ले गई थी |
जगद्गुरु भगवन श्रीकृष्ण मास्टरजी के आराध्य दैवत थे |
मास्टरजी के निज घर में गोपालकृष्ण की मूर्ति तथा तस्वीर थी | उनके घट-घट में समाये भगवन श्रीकृष्ण उनके सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त थे | उम्रभर वे अपने आराध्य की उपासना में लीन रहे |
मास्टरजी पर मानों कृष्ण तत्व की मेहर थी | उन्होंने अपने आराध्य देवता को स्मरण करते हुए अनाथन के नाथ तू यदुनाथ, चलत चलत मथुरा नगरी में, मान पूजा ये मेरी जसोदा नंद के लाला, ब्रज की बाट चलो तुम श्याम मोहन प्यारे, रंग रंग मुख पर मत फेंको बनवारी, मन में मोहन बिराजे, खेलत हैं गिरिधारी, श्यामसुंदर रे, ओ मोरे प्यारे किसन कन्हाई जैसी कई भक्तिपूर्ण बंदिशों को रचा |
मास्टरजी का सम्पूर्ण परिवार संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर के प्रति अटल श्रद्धा रखता था |
ह.भ.प. ल. रा पांगारकर के निर्देश पर चलते हुए मास्टरजी बिना अन्न-जल ग्रहण किये हर दिन ज्ञानेश्वरी का एक अध्याय पढ़ते थे, जिसका पालन वे उम्र के अंत तक करते रहे | वे भागवत धर्म के आचार-विचारों में आस्था रखते थे | ललार पर काला अबीर तथा गले में तुलसी माला धारण करते थे | जब मास्टरजी का देहावसान हुआ, तब भी उनके द्वार पर वारकरी सम्प्रदाय के अभंग गाये जा रहे थे | उन भजनों के निनाद में ही मास्टरजी का वैकुंठ धाम प्रस्थान हुआ |
मास्टर जी ने सद्गुरु नर्मदावासी परम् पूज्य सच्चिदानंद स्वामी उर्फ़ मौनी स्वामी ( मोक्ष गुरु ) से अनुग्रह लिया था | मास्टरजी को उनका प्रत्यक्ष सत्संग प्राप्त हुआ था |
इनके अलावा मास्टरजी के जीवन में श्री साईं बाबा, दासगणू महाराज, शंकर महाराज, अवतार मेहेर बाबा, नारायण महाराज, उपासनी महाराज, गुळवणी महाराज आदि संत महात्माओं का भी विशेष स्थान रहा | मास्टरजी ने इन सभी महान तपस्वी-संत पुरुषों के सामने अपनी गायन कला को प्रस्तुत किया था |
गुरुवर्य भास्करबुवा बखले ने बाल उम्र के कृष्णा को अपना पुत्र मानते हुए संगीत की शिक्षा दी | उन्होंने मास्टरजी के न केवल संगीत बल्कि उनके जीवन को भी दिशा दी | मास्टरजी हमेशा गुरु-आज्ञा में रहकर उनके पद-चिन्हों पर चलते रहे |
पितृतुल्य बखले बुवा के स्वर्गवास के पश्चात् मास्टरजी ने गुरु की गायन परम्परा को आगे बढ़ाया | स्वर-भास्कर देव गंधर्व बुवा द्वारा स्थापित भारत गायन समाज में मास्टरजी अंत तक कार्यशील रहे |
मास्टरजी श्रद्धावान होने के साथ साथ एक निष्ठावान देशभक्त थे | इसी वजह से ‘वन्दे मातरम्’ गीत को आजाद भारत का राष्ट्रगीत बनाने हेतु उन्होंने प्रखर सांगीतिक संघर्ष किया | ‘वन्दे मातरम्’ गीत को राष्ट्रीय गीत का सम्मान मिलने के पीछे मास्टरजी के अथक प्रयासों से किये गए संघर्ष को महत्वपूर्ण माना जाता है |
वे इन शब्दों में ‘वन्दे मातरम्’ की तरफदारी करते थे कि ‘वन्दे मातरम् मातृभूमि का भक्तिपूर्ण स्तवन और वंदना है’ | उनकी बैठक में अन्य पूजनीय विभूतियों तथा देवताओं की तस्वीरों के साथ भारतमाता / हिन्द माता का भी चित्र था |
स्वतंत्रता संग्राम में अपने अतुलनीय पराक्रम से हर भारतवासी के मन में देशाभिमान का बीज बोने वाले लोकमान्य तिलक मास्टरजी के प्रेरणादायी श्रद्धा पात्र थे |
पुणे के केसरी वाड़ा में बखले बुवा की उपस्थिति में पूजनीय लोकमान्य तिलक के सामने अपनी गायकी को पेश करने से वे खुद को सविनय गौरवान्वित महसूस करते थे |