देश की आजादी व अस्मिता की रक्षा की खातिर महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य तिलक ने अपने विचारों के जो बीज बोये थे, बचपन से ही संगीत कलानिधि मास्टर कृष्णराव फुलंब्रीकर ( महाराष्ट्र में कृष्णामास्तर या मास्तर के नाम से अधिक प्रचलित ) के मन-मस्तिष्क में उनकी जड़ें गहरे पैंठ गई थी | इन विचारों से प्रेरित होकर उनकी संगीत-कला देशहित का ऐसा साधन बनी, जिसने पूरी उम्र उन्हें देशकार्य के लिए प्रतिबद्ध रखा | विशेषतः भारतमाता के स्तवन गीत ‘वन्दे मातरम्’ को आजाद भारत का राष्ट्रगान बनाने का स्वप्न वे युवावस्था से ही संजोए हुए थे | इस लक्ष्य प्राप्ति हेतु उन्होंने जो विलक्षण कार्य और अथक प्रयास किये, उनकी प्रेरणा का आधार आदरणीय लोकमान्य तिलक ही थे, जिसका जिक्र मास्टर कृष्णराव खुलेआम करते थे |
वर्ष १९३४ में मास्टरजी ने ‘धर्मात्मा’ नामक धार्मिक फिल्म के लिए बतौर संगीतकार पुणे की प्रभात फिल्म कम्पनी में अपने कदम रखें | उस समय फिल्म निर्देशक वी. शांताराम भी इस कम्पनी के एक साझेदार थे | उनकी अनुमति लेकर मास्टर जी ने प्रभात के संगीत स्टूडियो में ‘वन्दे मातरम्’ इस सर्व वंदनीय गीत को एक राष्ट्रगान के नजरिये से देखकर उसे किसी समुचित धुन में ढालने हेतु कई तरह के रचनात्मक प्रयोग किये | इस सृजनशील कलाकार ने इस स्तवन को भूप, पहाड़ी जैसे प्रचलित रागों में बाँधने की कई कवायदें की | इस कार्य में उन्होंने प्रभात के गायक और वाद्य-वृन्द का सहयोग लिया था | कई दिनों तक इस गीत को लेकर उनका चिंतन चलता रहा और अंततः मुख्य रूप से मन्द्र व् मध्य सप्तक में गाये जानेवाले राग ‘झिंझोटी’ का चयन करते हुए उन्होंने इस राग में एक ऐसी सहज-सरल धुन बनाई, जिसे सभी उम्र के स्त्री-पुरुष, यहाँ तक कि बच्चें भी सामूहिक रूप से गा सकें | प्रभात के संगीत स्टूडियो में इसे ध्वनि मुद्रित भी किया गया | राग झिंझोटी को मास्टरजी ‘राष्ट्रीय राग’ के नाम से सम्बोधित करते थे | वर्ष १९३६ के बर्लिन ओलंपिक में मास्टर कृष्णराव द्वारा रचित ‘वन्दे मातरम्’ की मुद्रित धुन को स्वतंत्रता पूर्व भारतवर्ष के राष्ट्रगान के रूप में बजाया गया था |
गायनाचार्य स्वरभास्कर पं. बखले बुवा के गंडाधारी पट्ट शिष्य रह चुके मास्टर कृष्णराव चूँकि एक मर्मज्ञ और कुशल शास्त्रीय गायक थे, लिहाजा अपनी संगीत महफ़िलों में वे ‘करीन यदुमनी सदना’,‘ललना मना’ जैसे नाट्य-गीत हो या‘राधिका चतुर बोले’, ‘मन पापी भुला’ जैसे सिनेमा गीत या फिर ‘परब्रह्म निष्काम तो हा’ जैसे अभंग, हर बार उन्हें नित-नई सांगीतिक हरक़त के साथ व गायकी के अंग से विस्तारपूर्वक सुनाते थे | लेकिन ‘वन्दे मातरम्’ को उन्होंने कभी भी गायकी के अंग से या विस्तार के साथ प्रस्तुत नहीं किया | इसके पीछे की एकमात्र वजह यही थी कि वे युवावस्था से ही इस सर्व वन्दनीय गीत को आजाद भारत के राष्ट्रगान के रूप में देखने का स्वप्न पाले हुए थे | जब भारत पराधीन था, तब भी मास्टरजी अपनी संगीत महफ़िलों में भिन्न-भिन्न प्रांतों और धर्मों के श्रोताओं के समक्ष ‘वन्दे मातरम्’ को राग झिंझोटी में उसके सभी अंतरों समेत किसी राष्ट्रगान की तरह ही गाकर प्रस्तुत करते थे |
भले ही भारत अंग्रेजों के अधीन था, वर्ष १९३७ में पुणे के तिलक स्मारक मंदिर में देश का सर्वप्रथम वन्दे मातरम् दिन स्वतंत्रता वीर सावरकर, सेनापति बापट जैसे महान नेताओं की मौजूदगी में बड़े धूमधाम से, समारोह पूर्वक मनाया गया था | तब लोकमान्य तिलक के पोते श्रीमान जी. वि. केतकर की अगुवाई में मादाम कामा का आद्य वन्दे मातरम् ध्वज पूरे जल्लोष तथा जुलूस के साथ तिलक स्मारक मंदिर में लाया गया था | उस समय मास्टर कृष्णराव ने राग मिश्र झिंझोटी में बनाई अपनी धुन पर ‘वन्दे मातरम्’ गीत के सभी अन्तरों को बहुत ही भावविभोरता से प्रस्तुत किया था, जिससे मंत्रमुग्ध होकर श्रीमान एल. बी. भोपटकर ने उनका सत्कार किया था ही, स्वतंत्रता वीर तात्याराव सावरकर ने भी पीठ थपथपाते हुए उनकी बड़ी सराहना की थी | इस समारोह पर ‘दैनिक केसरी’ अख़बार में एक विस्तृत आलेख भी छपकर आया था |
सरोजिनी नायडू तो अपने भाषणों और पत्रों में मास्टर जी को ‘वन्दे मातरम् वाले मास्टर कृष्णराव’ के नाम से ही सम्बोधित करती थी | उन्हींके हाथों जब वर्ष १९४१ में वन्दे मातरम् के प्रचार-प्रसार हेतु मास्टरजी के निरंतर प्रयासों को देखते हुए मुंबई के सेंट जेवियर्स कालेज में उन्हें सम्मानित किया गया, तब उन्होंने मास्टरजी को ‘गायकों का नेता’ कहते हुए गौरवान्वित किया था | साथ ही ८ अगस्त १९४२ के दिन मुंबई के गोवालिया टैंक पर कांग्रेस के ‘चले जाओ’ अधिवेशन में वन्दे मातरम् गीत को गाने हेतु केवल कृष्णा मास्टरजी का ही चयन हुआ था |
मास्टर कृष्णराव एक सच्चे देशभक्त थे | अपनी संगीत प्रस्तुतियों का समापन वे अक्सर अपने द्वारा संगीतबद्ध किये ‘वन्दे मातरम्’ गीत को किसी राष्ट्रगान की तरह ही गाकर करते थे | यद्यपि ब्रिटिशों के राज में इस तरह से सार्वजनिक रूप से वन्दे मातरम् गाने पर प्रतिबंध लगा हुआ था | बावजूद इसके एक बार आकाशवाणी द्वारा आयोजित अपनी किसी गान महफ़िल में मास्टरजी ने नाट्य-पद की गायकी के अंत में सहसा वन्दे मातरम् के बोल छेड़ दिए | आकाशवाणी के डायरेक्टर श्रीमान बुखारी ने तुरंत ध्वनिक्षेपक बंद करते हुए प्रसारण रोक दिया | मास्टरजी ने इस पर कड़ी आपत्ति जताते हुए आकाशवाणी का पूर्णतः बहिष्कार कर दिया | उस समय तक भारत में दूरदर्शन का आगमन नहीं हुआ था | अतः आकाशवाणी ( इंडिया स्टेट ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन ) ही कलाकारों के लिए आजीविका और रसिक जनों तक पहुँचने का एकमात्र मुख्य जरिया था | इस घटना का देश के सभी प्रमुख अख़बारों ने संज्ञान लेकर अपना रोष प्रकट किया था | फिर आगे जब वर्ष १९४७ में आजादी दृष्टिपथ में थी, आकाशवाणी ने सरदार वल्लभभाई पटेल की मध्यस्थता से गुड़ी पड़वा के शुभ मुहूर्त पर मास्टरजी को पूरे सम्मान के साथ वन्दे मातरम् गीत गाने के लिए आमंत्रित किया था | मास्टरजी ने भी इस गीत को गाकर अपना बहिष्कार वापस ले लिया और आकाशवाणी में अपने सांगीतिक पेशे को दुबारा शुरू किया | आगे आकाशवाणी के अनुरोध पर ही उन्होंने पुणे में शुरू किये गए नए आकाशवाणी केन्द्र की खातिर बतौर संगीतकार, शास्त्रीय गायक व सलाहकार कुछ समय तक अपनी सेवाएं दी थी |
१९४७ में भारत आजाद हुआ | चूँकि अब तक राष्ट्रगान तय नहीं हुआ था, लिहाजा १४ अगस्त १९४७ के रात्रि-समारोह में ‘जन गण मन’ और ‘वन्दे मातरम्’ इन दोनों गीतों को गाया गया | दिसंबर १९४७ में जब संविधान समिति का कामकाज शुरू हुआ, उस समय मास्टरजी ने पंडित नेहरू को एक तार भेजा, जिसमें उन्होंने वन्दे मातरम् गीत को लेकर बतौर संगीतज्ञ अपनी राय सुनने का अनुरोध किया | तार पढ़कर पंडितजी ने तुरंत मास्टरजी को दिल्ली आने का न्यौता देते हुए उस गीत को प्रस्तुत करने के लिए कहा | मास्टरजी ने दिल्ली पहुँचकर पं. नेहरू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल, डॉ. बाबासाहब अंबेडकर, काकासाहब गाडगील, जी. व्ही. मालवणकर, जे. बी. कृपलानी, सी. राजगोपालाचारी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, बी.एन. राव, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, मौलाना आज़ाद आदि संविधान समिति के सदस्यों के सामने बहुत ही परिश्रम से तैयार की गई दो मुद्रित धुनों को सुनाया, जिनमें से एक समूह-गायन हेतु तथा अन्य केवल वृन्द-वादन में पिरोई गई थी | साथ ही उन्होंने गीत को प्रत्यक्षतः गाकर भी सुनाया| लेकिन पं. नेहरू ने उन्हें ऐसी रचना बनाने का सुझाव दिया, जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ या विदेशों में सहजता से बजाया जा सके | फिर मास्टरजी मुंबई आकर वहां के पुलिस बैंड के प्रमुख सी.आर.गार्डनर नामक ब्रिटिश अफसर से मिले और उनके सहयोग से राग मिश्र झिंझोटी में ढली इसी रचना को उन्होंने पश्चिमी ढंग से बैंड के संगीत के साथ निबद्ध किया | उसके अनुसार नोटेशन्स छपवाए | संसद में प्रस्तुति हेतु बैंड के तर्ज पर बनायी धुन की तीन ध्वनि मुद्रिकाएँ तैयार की | इसी के साथ नेव्हल बैंड के प्रमुख स्टैनले हिल्स ने भी मास्टरजी की रचना को ब्रास बैंड पर पश्चिमी संगीत में निबद्ध किया | इन तीनों ध्वनि मुद्रिकाओं को तैयार करने के पश्चात उन्होंने श्रीमान गार्डनर व श्रीमान हिल्स इन पश्चिमी संगीतज्ञों के अभिमत, बैंड गीत के नोटेशन्स और वन्दे मातरम् को किस तरह से राष्टगीत का दर्जा दिया सकता है, इसे लेकर बतौर संगीतकार अपनी राय, सभी के पत्रक छपवाए | इस पर्याप्त सामग्री और अपने साथियों के साथ वे दुबारा दिल्ली पहुंचे और तत्कालीन संसद में सबके सामने इन ध्वनि मुद्रिकाओं को रखा | १ मिनट और ५ सेकेंड्स की तथा ध्वजारोहण के समय बजनेवाली २० सेकेंड्स की इस तरह से दो मुद्रित धुनें सुनाई गई |
शुरू से ही मास्टर कृष्णराव रचित वन्दे मातरम् गीत की धुन को कई राजनेता, कार्यकर्ता, कलाकार व जनसाधारण का प्रबल समर्थन था | इस धुन को मास्टरजी के परात्पर गुरु संगीत सम्राट उस्ताद अल्लादिया खां साहब ने अपने भाषणों में तथा लिखित रूप से भी सम्मति दी थी | इसके अलावा प्रख्यात गायक उस्ताद फैय्याज खां साहब ने भी लिखित रूप में अपना अनुमोदन दिया था |
कई धनाढ्य व्यवसायी भी मास्टरजी की इस धुन व उनके राष्ट्रगान अभियान में उनके समर्थन में डटकर खड़े थे | लेकिन मास्टर कृष्णराव की खुद्दारी ने कभी किसी के सामने इस देशकार्य हेतु अपने हाथ नहीं फ़ैलाने दिए | इसके लिए उन्होंने जो भी किया,अपने बलबूते पर किया | खुले हाथों से इसका खर्चा उठाया | साथ ही अपनी प्रखर बुद्धिमता को काम में लाकर कड़ी मेहनत भी उठाई| कल्पनाशील मास्टरजी ने संगीत के क्षेत्र में तरह-तरह के प्रयोग किये और उन्हें जबरदस्त सफलताएं भी मिली | लेकिन वन्दे मातरम् इसका एक अपवाद साबित हुआ | तत्कालीन सरकार ने बतौर राष्टगीत ( National Song ) ‘वन्दे मातरम्’ की जगह ‘जन गण मन’ का चुनाव किया | सरकार शायद आजादी के तुरंत बाद कोई बखेड़ा या बहस नहीं चाहती थी | हालाँकि मास्टरजी का परिश्रम पूरी तरह से व्यर्थ नहीं गया था | राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्रप्रसाद ने ‘वन्दे मातरम्’ को राष्ट्रीय गीत के तौर पर मान्यता प्रदान करते हुए जाहिर ऐलान किया कि राष्ट्र्गान के समकक्ष ही ‘वन्दे मातरम्’ को भी पूरा सम्मान व दर्जा मिलेगा | मास्टरजी कुछ निराश जरूर हुए थे | बावजूद इसके अपनी निराशा को परे रखकर पूरी उम्र वे ‘वन्दे मातरम् का प्रचार-प्रसार करने में लगे रहे | विभिन्न संस्थाओं, स्कूलों और विद्यालयों में बच्चों को सामूहिक रूप से ‘वन्दे मातरम्’ की धुन सिखाते रहे | कई वर्षों तक उनके गाये ‘वन्दे मातरम्’ गीत की ध्वनि मुद्रिकाएँ महाराष्ट्र के स्कूलों और महाविद्यालयों में नित नेम से बजती रही | साथ ही कई राजनीतिक,सामाजिक व निजी संस्थाएं उन्हें विशेष समारोहों में इस गीत को सम्पूर्ण अंतरों समेत प्रस्तुत करने हेतु खास निमंत्रण भेजती रही |
मास्टर कृष्णराव कांग्रेस के निधर्मीवाद के प्रबल समर्थक थे | ‘सर्व धर्म समभाव’ सिद्धांत में विश्वास रखते हुए प्रत्यक्ष जीवन में भी उन्होंने उसका पालन किया | वेद-पठन करनेवाले ज्ञानी ब्राह्मण परिवार के होने से वे धार्मिक और आध्यात्मिक विचारों में आस्था रखते थे | लेकिन कर्मठ या संकुचित विचारधारा के बिलकुल नहीं थे | व्यक्ति के गुणों को श्रेष्ठ मानकर उनकी कदर करना जानते थे | अतः उनके निवासस्थान पर हमेशा भिन्न-भिन्न जाति-धर्मों के गुणीजनों का ताँता लगा रहता था | अगर कोई बात उन्हें जँच जाती और हर ढंग से उचित जान पड़ती, तब उसके पक्ष में अपना सर्वस्व झोंक देने की अटल दृढ़ता उनके भीतर थी | उनका मूल स्वभाव ऐसा ही था | इसीलिए लगभग सभी पक्षों के लोग उनके ‘वन्दे मातरम्’ अभियान में उनके साथ खड़े थे | सभी पक्षों से वे स्नेह भाव रखते थे | बड़े ही हँसमुख तथा मिलनसार प्रवृत्ति के इस विश्वामित्र कलाकार ने भविष्य में भी कभी भी पं.नेहरू के प्रति किसी तरह का दुर्भाव अपने मन में नहीं पाला | बल्कि देशगीतों की उनकी स्वरावली के साथ लिखी अपनी ‘राष्ट्र संगीत’ इस किताब को बतौर आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री, उन्होंने नेहरू जी को ही समर्पित किया था | पंडितजी ने देश का सर्वोपरि संगीतकार कहते हुए मास्टरजी को गौरवान्वित किया था | बावजूद इसके बिना किसी बहस या मतदान के उन्होंने राष्ट्र्गान को लेकर इकतरफा निर्णय लिया था | डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने जब बतौर राष्ट्रगीत ‘जन गण मन’ का ऐलान किया, तब इस अभियान के लिए अपना तन-मन-धन झोंककर लम्बे समय तक एक सांगीतिक लड़ाई लड़नेवाले भावुक मास्टरजी का आहत होना अत्यंत स्वाभाविक व जायज था | लेकिन केवल आलोचना में अपना समय न गँवाकर जीवनभर वे यथा सामर्थ्य व यथा सम्भव ‘वन्दे मातरम्’ का प्रचार-प्रसार करने में लगे रहे | इस अभियान में उनके संगीत के चहेते, शिष्यगण, कई क्रान्तिकारी, राजनेता और सुधि जन आगे आये और उन्होंने अपना सक्रीय योगदान दिया | वर्ष १९५३ में भारत सरकार की ओर से भारतीय कलाकारों के एक प्रतिष्ठित प्रतिनिधिमंडल का गठन हुआ, जिसमें जाहिर तौर से मास्टरजी का भी समावेश था | जब इस समूह को भारत की सांस्कृतिक विरासत का दर्शन करवाने हेतु चीन द्वारा आमंत्रित किया गया था, तब वहां पर जहाँ-जहाँ इस कला-पथक ने अपने कार्यक्रम प्रस्तुत किये, हर कार्यक्रम का आगाज मास्टरजी द्वारा रचित वन्दे मातरम् की धुन के साथ होता रहा, जिसमें अन्य कलाकारों ने भी उनके गायन में साथ दिया था |
अपनी कला को राष्ट्र हित में अर्पण करते हुए आत्म गौरव व राष्ट्र सम्मान की अद्भुत मिसाल पेश करनेवाले स्वाभिमानी कलाकारों में संगीत कलानिधि मास्टर कृष्णराव का नाम हमेशा अग्रणी रहेगा | बड़ी जीवटता के साथ किये गए उनके विलक्षण कार्य का गौरव करते हुए खुद पी.एल. देशपांडे ने मास्टरजी के ६० वीं वर्षगाँठ समारोह में अपने ध्वनि मुद्रित भाषण में कहा था कि “वन्दे मातरम् के लिए मास्टरजी के अथक कड़े परिश्रम और प्रयासों को देखते हुए मास्टरजी को ही ‘वन्दे मास्तरम्’ कहने का मन होता है !’’
वर्ष २०२२ बतौर भारतीय आजादी का अमृतवर्ष, एक विशेष वर्ष है | साथ-साथ यह वर्ष सिद्धहस्त गायक, शास्त्रीय रचनाकार, प्रतिभाशाली संगीतकार, फिल्म व् संगीत नाटक के अभिनेता जैसी कई प्रतिभाओं से समृद्ध व अनेक सांगीतिक क्षेत्रों में सफलता से विहार करनेवाले, अपने प्रसन्न स्वभाव, दिलख़ुलास गायकी व बातों से संगीत महफ़िलों को सफल बनाकर सुधि जनों का मन जीतनेवाले सृजनशील मास्टर कृष्णराव का एक सौ पच्चीसवां जन्म वर्ष अर्थात शताब्दी उपरान्त रजत जयंती वर्ष भी है | इस औचित्य पर इस महान देशभक्त कलाकार की अद्भुत सांगीतिक लड़ाई की स्मृति को नम्रतापूर्वक किया गया यह सादर नमन है !