मास्टरजी को श्रोताओं की अच्छी परख थी | प्रस्तुति के दौरान वे श्रोताओं को तुरंत भाँप लेते थे और फिर उसी के अनुसार अपनी गायकी पेश करते थे | गायकी के समय लिलार पर काला अबीर धारण की हुई उनकी प्रसन्न मुद्रा व सलीकेदार पारम्परिक वेशभूषा के साथ गरिमापूर्ण ढंग से जमाई बैठक अपना अलग ही प्रभाव छोड़ जाती थी | बिना कोई अंगविक्षेप किये, स्वरों को अनावश्यक रूप से खींचने से परहेज करते हुए, प्रसंगानुकूल केवल हाथों को हिलाकर वे अपनी गान प्रस्तुति देते थे | अपने सफेद तीन पैमाने के साथ वे मध्य लय में गाते थे | इस तरह से सुचारु और सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुति का पाठ उन्हें बचपन से ही अपने गुरु बखलेबुवा से मिला हुआ था |
श्रोताओं द्वारा पुनः एक बार गाने का आग्रह किये जाने पर उनका पूरा सम्मान रखते हुए वे उसी गीत को हर समय नई-नई तानों और हरकत के साथ प्रस्तुत करते | अपनी महफ़िल में वे सबसे हँसते-बतियाते पेश आते | उनकी महफ़िल का दर्जा हमेशा उत्थान की ओर रहता था |
अपनी महफ़िलों में मास्टरजी पारम्पारिक खास चीजों को प्रस्तुत करते थे ही, अलावा इसके कई बार वे महफ़िल में सहसा नई बंदिशों को प्रचलित राग या अपने ही बनाये हुए नये अप्रचलित या जोड़-राग में प्रस्तुत करते थे | मास्टरजी खुशमिजाज और बातूनी थे | अतः गान प्रस्तुतियों के दौरान कभी सुधिजनों से संवाद करते हुए, कभी अपने संगतदारों से मुखातिब होते हुए, अकस्मात कोई मजाकिया जुमला कसकर तुरंत सम पर आने की कुशलता उनमें थी | चूँकि सुधिजनों का मान रखकर वे उनकी पसंद और फरमाइश पर पुनर्प्रस्तुति करते थे, अतः हर कोई मास्टरजी की आनंदयात्रा का सहजता से हिस्सेदार हो जाता, मानों मास्टरजी उसी के लिए गा रहे हैं |
अपनी महफ़िलों में मास्टरजी ने सभी संगीत विधाओं को समाविष्ट किया और अपने द्वारा संगीतबद्ध किये गए सिने गीत, नाट्य गीत, अभंग तथा भजनों को भी उतनी ही तन्मयता से गाया | इसलिए उनकी महफ़िलें कभी उबाऊ नहीं हुई | देशभक्त और वन्दे मातरम् गीत के प्रति समर्पित होने से वे कई बार अपनी महफ़िलों का समापन राग झिंझोटी में संगीतबद्ध किये अपने वन्दे मातरम् गीत को उसके सभी अंतरों समेत गाकर करते थे | उनकी महफ़िलों का माहौल हमेशा प्रसन्न, आनंदवर्धक व उल्लासपूर्ण बना रहता था | मास्टरजी ने आजादी के पूर्व पूरे भारतवर्ष में शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियां दी | जगह-जगह की महफ़िलों में अपने गुरु बखलेबुवा को तानपुरे पर साथ-संगत दी और अपनी निजी महफ़िलें भी खूब जमाई | पंजाब में मास्टरजी की राग जीवनपुरी में निबद्ध ‘बाजे झनन’ बंदिश ने ऐसी ख्याति पाई थी कि वे वहाँ पर ‘बाजे झनन मास्टर कृष्णा’ के नाम से पहचाने जाने लगे थे | इसी के साथ प्रायः वे अपनी महफ़िल में ‘देखो मोरी चुरिया करके गैया’ इस पारम्पारिक भैरवी को ठुमरी अंग से प्रस्तुत करते | मास्टरजी ने राग भैरवी में अनगिनत नए पदों तथा बंदिशों को रचा था, जिन्हें वे अपनी महफ़िलों में इतनी सुंदरता से प्रस्तुत करते थे कि उन्हें ‘भैरवी का बादशाह’ भी कहा जाता था | भैरवी राग की उनकी हर रचना अर्थपूर्ण है | साथ ही हर रचना का अपना अलग रंग-ढंग है | उनमें सन्निहित उत्कट,आकुल भाव और उनका सुरीलापन मन पर अमिट छाप छोड़ जानेवाला है | इसकी एक बानगी हम नाट्यनिकेतन के नाटकों के उन नाट्य गीतों में देख सकते हैं, जिन्हें मास्टरजी ने शास्त्रीय रागदारी में ढालकर उन्हें भावगीत का रूप दिया था और उन्हें कालानुरूप धुनों में बाँधा | नाट्य निकेतन के ‘बोला अमृत बोला’, ‘हास हास से हृदया’, ‘का रे ऐसी माया’ ये भैरवी के तीनों नाट्य पद जिस तरह से अलग-अलग धुनों में निबद्ध और प्रसंगानुकूल भावों को दर्शानेवाले हैं, यह अपने आप में एक बेहतरीन व अनूठी मिसाल है |
मास्टरजी ने गुरुवर्य बखलेबुवा द्वारा स्थापित ‘पुणे भारत गायन समाज’ संस्था हेतु अपनी सुबोध व विशेषतापूर्ण संगीत व्याकरण पद्धति के अनुसार ‘राग माला संग्रह : १-७ खंड’ इस भारत सरकार से मान्यता प्राप्त सम्पूर्ण शास्त्रीय संगीत गायन पाठ्यक्रम को तैयार किया है | इसमें बुवा की सिखाई पारम्पारिक बंदिशें तथा अन्य प्रसिद्ध पारम्परिक बंदिशों के साथ स्वरचित बंदिशें तथा भजनों आदि का संकलन है |