सिनेमा या नाटक के गीतों को धुनों में निबद्ध करते समय मास्टरजी को किसी भी वाद्य या गीत-काव्य की जरुरत नहीं महसूस होती थी | निर्देशक के केवल कथानक और गीत के अनुकूल प्रसंग को कथन करने मात्र से ही मास्टरजी उस प्रसंग में निहित भावों को भाँपकर तुरंत स्वरों को गूँथ लेते थे और बैठे जगह पर कई सारी धुनों का विकल्प उस निर्देशक के सामने खोलकर रख देते थे | तात्पर्य यह है कि बतौर संगीतकार मास्टरजी पहले भावों से भरी सुरों की लड़ी तैयार करते, फिर उसके पश्चात् गीतकार उन स्वरों की लड़ियों के अनुकूल उनमें अपने शब्द पिरोते थे |
मास्टरजी की ‘मराठी असे आमुची मायबोली, ‘वेड्या मना तळमळशी’, ‘जाई परतोनी बाळा’ जैसे सिनेगीतों को दी हुई धुनें भाव गीत की ही तर्ज पर दी हुई है | साथ ही ‘कुलवधू’, ‘एक होता म्हातारा’, ‘कोणे एके काळी’ आदि नाट्यनिकेतन के नाटकों के गीतों की धुनें भी शास्त्रीय रागदारी पर आधारित होकर भी भावगीत की शैली के बहुत नजदीक है |
प्रभात फिल्म कम्पनी की केवल हिंदी में बनाई फिल्म ‘वहाँ’ के गीत मास्टरजी द्वारा संगीतबद्ध किये थे | इस फिल्म का ‘हर गली में हैं बगीचे’ यह गीत बेहद लोकप्रिय हुआ था | इसकी धुन इतनी मधुर व मुलायम थी कि श्री गजानन वाटवे जी ने ‘गगनी उगवला सायंतारा’ इस गीत को हूबहू इसी गीत की धुन में पिरोया था | इससे दिखाई देता है कि मास्टरजी द्वारा दी गई भावपूर्ण और शानदार धुनों ने किस भाँति मराठी भाव गीत जगत को भी प्रभावित किया था |