वर्ष १९३५ में पुणे की प्रभात फिल्म कम्पनी में बतौर संगीत निर्देशक काम करते समय मास्टरजी ने शुरू में राग 'झिंझोटी' में 'वंदे मातरम्' गीत को संगीतबद्ध किया और प्रभात के निर्देशक वी. शांताराम जी की अनुमति से उसे प्रभात के स्टूड़ियो में रिकार्ड भी किया | अल्पावधि में ही यह गीत अत्यंत लोकप्रिय हो गया | चूँकि मास्टर कृष्णराव के मन में राष्ट्र के प्रति सम्मान व् भक्ति थी, लिहाजा अपनी कई गान महफ़िलों का समापन वे अपने द्वारा संगीतबद्ध किये हुए वन्दे मातरम् गीत के साथ करते थे | यद्यपि उस समय अंग्रेजों का राज होने से वन्दे मातरम् के सार्वजानिक गायन पर सरकार की पाबन्दी लगी हुई थी | बावजूद इसके एक बार मास्टरजी ने आकाशवाणी के एक निजी कार्यक्रम में नाट्य गीत के अंत में सहसा ‘वन्दे मातरम्’ के बोल छेड़ दिये | आकाशवाणी के निर्देशक श्रीमान बुखारी ने तुरंत प्रसारण रोक दिया | इसके प्रतिरोध में मास्टरजी ने हमेशा के लिए आकाशवाणी से बिदा ले ली | उस समय तक भारत में दूरदर्शन का आगमन नहीं हुआ था | अतः कलाकारों की आजीविका तथा रसिकों तक पहुँचने का एकमात्र प्रमुख जरिया आकाशवाणी ही था | इस घटना के चलते देश के सभी प्रमुख अख़बारों ने अपना तीव्र रोष प्रकट किया था | आगे जब १९४७ में आजादी दृष्टि-पथ में थी, तब 'सरदार वल्लभभाई पटेल' की मध्यस्थता से आकाशवाणी ने गुड़ी-पड़वा के दिन मास्टरजी को ससम्मान पुनः ‘वन्दे मातरम्’ गाने के लिए आमंत्रित किया | मास्टरजी ने भी इस गीत को गाकर अपना बहिष्कार पीछे लिया और आकाशवाणी में अपने सांगीतिक पेशे की दुबारा शुरूआत की | आगे आकाशवाणी के ही अनुरोध पर पुणे में शुरू किये गए नये आकाशवाणी केन्द्र में बतौर अधिकृत संगीतकार व शास्त्रीय गायक मास्टरजी ने कुछ समय तक काम किया था |
देश को आजादी मिली, लेकिन अभी तक राष्ट्रगान के लिए किसी गीत का चयन नहीं हुआ था | अतः १४ अगस्त १९४७ के रात्रि-समारोह में 'जन गण मन' और 'वंदे मातरम्' इन दोनों गीतों को गाया गया था | दिसंबर १९४७ में जब संविधान समिति के कामकाज का आगाज हुआ, मास्टरजी ने पंडित नेहरू को एक तार भेजकर बतौर संगीतज्ञ ‘वन्दे मातरम्’ को लेकर अपनी राय जान लेने का अनुरोध किया | इस तार के मिलते ही तुरंत पंडितजी ने मास्टरजी को दिल्ली आने का न्यौता देते हुए इस गीत को प्रस्तुत करने के लिए कहा | मास्टरजी ने दिल्ली पहुँचकर संविधान समिति के सदस्यों के सामने समूह गीत हेतु तथा केवल वाद्यवृन्द में पिरोई गई इस तरह से ‘वन्दे मातरम्’ की बहुत ही परिश्रम से बनाई गई दो ध्वनि मुद्रिकाओं को रखा | साथ ही प्रत्यक्षतः उन्हें गाकर भी प्रस्तुत किया | लेकिन पंडितजी ने कहा कि वे ऐसी रचना चाहते हैं, जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ या विदेशों में आसानी से बजाया जा सके | इसके बाद मास्टरजी मुंबई आकर मुंबई पुलिस बैंड के प्रमुख संचालक सी.आर. गार्डनर नामक ब्रिटिश अफसर से मिले | फिर गार्डनर महोदय के सहयोग से उन्होंने राग झिंझोटी की इसी रचना को पश्चिमी ढंग से बैंड के संगीत में ढाला | उसके अनुकूल नोटेशन्स बनाये | इस पुलिस बैंड पर बनाई गई ‘वन्दे मातरम्’ रचना की तीन ध्वनि मुद्रिकाएं बनाई| इसीके साथ श्रीमान गार्डनर व नेव्ही बैंड के ब्रिटिश संचालक श्रीमान स्टैनले हिल्स इन दोनों पश्चिमी संगीतज्ञों के अभिमत, बैंड्स के नोटेशन्स और ‘वन्दे मातरम्’ को राष्ट्रगान का दर्जा मिलने हेतु बतौर संगीतकार अपनी राय इनके पत्रक छपवाए | इस पूरी सामग्री और साथीदारों के साथ मास्टरजी दुबारा दिल्ली पहुंचे | तत्कालीन संसद में संविधान समिति के सदस्यों के समक्ष उन्होंने ‘वन्दे मातरम्’ की सभी प्रस्तुतियों को पेश किया | १ मिनट ५ सेकेंड्स की और ध्वजारोहण के अवसर पर बजाई जानेवाली २० सेकेंड्स की इस तरह से दो मुद्रित धुनों को सुनाया गया |
मास्टरजी की सभी संगीत रचनाओं में सुलभ सौन्दर्य तथा मधुरता दिखाई देती है | झिंझोटी राग में ढाली गई ‘वन्दे मातरम्’ रचना भी इसका अपवाद न थी | सभी संसद सदस्यों ने इस सर्जनात्मक मौलिक कार्य के लिए मास्टरजी को बड़ा सम्मान दिया | ‘वन्दे मातरम्’ गीत को राष्ट्रगान का दर्जा देने के खिलाफ नेहरू जी समेत कुछ लोगों को जो भी आपत्तियां थी, मास्टरजी ने अपनी प्रस्तुति से सभी को निरस्त कर दिया था | अपनी प्रस्तुतियों से उन्होंने यह साबित कर दिया था कि किसी संचलन गीत की तरह ही ‘वन्दे मातरम्’ का भी गायन-वादन हो सकता है | ये सभी प्रयास मास्टरजी ने अपने निजी खर्चे से किये थे, जिसके लिए उन्हें बहुत खर्चा उठाना पड़ा था | पुलिस मैदान पर खड़े रहकर संचलन गीत के लिए उन्होंने अपना पसीना तक बहाया था | लेकिन सरकार शायद आजादी के तुरंत बाद किसी तरह की बहस या बखेड़ा नहीं चाहती थी | यद्यपि आजादी के आंदोलन में ‘वन्दे मातरम्’ शब्द की महत्ता, उसका स्थान और मास्टरजी के अथक प्रयासों की बदौलत सरकार के लिए ‘वन्दे मातरम्’ को पूर्णतः ख़ारिज करना भी आसान नहीं था | कई राज्यों के प्रमुख भी ‘वन्दे मातरम्’ को राष्ट्रगान का दर्जा देने के पक्ष में थे | स्वयं गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने वर्ष १८९६ में ‘वन्दे मातरम्’ का प्रथम सार्वजनिक गायन करते हुए इस गीत की महिमा पर जैसे मुहर लगा दी थी | वे इस गीत के समर्थक थे | लेकिन दुर्भाग्य से वे १९४७ में जीवित न थे |
आखिरकार २४ जनवरी १९५० के दिन संविधान समिति की अंतिम बैठक में बिना किसी बहस या मतदान के संविधान समिति के अध्यक्ष डॉ.राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रगान ( National Anthem) के रूप में ‘जन गण मन’ का ऐलान कर दिया | साथ ही यह भी घोषित किया कि ‘वन्दे मातरम्’को राष्ट्रीय गीत ( National Song) का सम्मान दिया जाएगा | उस समय मास्टरजी दिल्ली में ही थे | जाहिर था, इस घोषणा से वे बहुत निराश हुए थे | ‘वन्दे मातरम्’ को राष्ट्रगान के रूप में देखने का स्वप्न वे संजोए हुए थे | इसके लिए उन्होंने क्या कुछ नहीं किया था | बरसों वे इस लक्ष्य का पीछा करते रहे | वे निराश जरूर हुए थे | यद्यपि यह कम संतोष की बात नहीं थी कि ‘वन्दे मातरम्’ को पूर्णतः अस्वीकृत न करते हुए उसे 'समान राष्ट्रगीत' का दर्जा दिया गया था | निस्संदेह इस निर्णय के पीछे जो बहुत से कारण थे, उनमें से मास्टरजी की लम्बी सांगीतिक लड़ाई और उनके अथक प्रयास यह एक प्रबल कारण था | राष्ट्र के लिए मास्टरजी के इस अद्वितीय कार्य का संज्ञान लेते हुए उन्हें जगह-जगह पर सम्मानित किया गया | यहाँ तक कि स्वत्रंतता 'वीर सावरकर' के हाथों उनकी खातिर भव्य सम्मान समारोह का आयोजन हुआ था |
इसके बाद भी मास्टरजी जीवन भर ‘वन्दे मातरम्’का प्रचार-प्रसार करने में जुटे रहे | अब तो सुधिजन ही चाहने लगे थे कि उनकी संगीत महफ़िलों का समापन इसी गीत के साथ हो | वर्ष १९५३ में भारत सरकार ने चीन में भेजने हेतु जो सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल गठित किया था, उसमें स्पष्टतः मास्टरजी का शीर्ष समावेश था ही | इन कलाकारों ने चीन में जहाँ कहीं पर अपने कार्यक्रम प्रस्तुत किये, हर कार्यक्रम का आगाज मास्टरजी के ‘वन्दे मातरम्’ गीत के साथ होता रहा | इस गायन में इस कला-पथक के हर सदस्य ने उनका साथ दिया | वर्ष १९७० तक मास्टरजी की संगीतबद्ध की हुई ‘वन्दे मातरम्’ रचना की रिकार्डिंग महाराष्ट्र के सभी स्कूलों और महाविद्यालयों में हर दिन बजती रही | कई संस्थाओं तथा सभाओं में कार्यक्रमों के दौरान इस रिकार्ड को बजाया जाता था | इसीके साथ मास्टरजी को पुणे स्थित महाराष्ट्रीय मंडल, शिवाजी मंदिर, अखिल भारतीय हिन्दू महासभा जैसी संस्थाओं द्वारा इस ‘वन्दे मातरम्’ गीत को उसके सम्पूर्ण अंतरों समेत गाने के लिए आमंत्रित किया जाता रहा |
अपनी कला को राष्ट्र के चरणों में अर्पित करते हुए स्वाभिमान और राष्ट्र गौरव की बेजोड़ मिसाल रखनेवाले गिने-चुने कलाकारों में मास्टरजी का नाम हमेशा अग्रणी रहेगा | इस तेजस्वी कार्य का सम्मान करते हुए कभी पी. एल. देशपांडे ने कहा था कि “‘वन्दे मातरम्’ के लिए मास्टरजी ने जिस तरह से परिश्रम उठाये, उसे देखते हुए उन्हें ‘वन्दे मास्तरम्’ कहने का मन होता है !’’
मास्टरजी ने ‘अमर है हिन्दोस्तान’, ‘होशियार रहना’, ‘सबको अपना ही धर्म प्यारा’ आदि देशभक्ति-परक गीतों की भी रचना की और उन्हें धुनों में पिरोया | इन गीतों का उनकी स्वरावलियों के साथ एक संकलन ‘राष्ट्र संगीत’ के नाम से प्रकाशित हुआ | ‘वन्दे मातरम्’ इस क्रांतिकारी गीत के साथ उपरोक्त किताब में समावेशित गीतों को भी कई महत्वपूर्ण अवसरों पर राष्ट्रपुरुषों के समक्ष गाये जाने का ब्यौरा कई जगहों पर दर्ज है |