मास्टरजी ने उम्र के दसवें वर्ष में मराठी रंगभूमि में पदार्पण करते हुए ‘नाट्य कला प्रवर्तक’ संस्था के अत्यंत ख्याति प्राप्त संगीत नाटक ‘संत सखुबाई’ में बाल गायक-अभिनेता के रूप में विठ्ठल की यादगार भूमिका निभाई | इस नाटक में उनके गाये ‘भक्तजन सदा म्हणती दयासिंधु मला’ इस पद ने बड़ी वाहवाही लूटी थी | संगीत प्रेमी दर्शक दाद देते हुए बार-बार उनसे यह पद गवाते थे | आगे इसी नाट्य संस्था के ‘राजा हरिश्चंद्र’ संगीत नाटक में वे ‘संत रोहिदास’ और ‘संगीत सौभद्र’ में नारद की भूमिका में सामने आये | लगभग चार वर्ष तक वे इस नाट्य संस्था से बतौर बाल गायक-अभिनेता जुड़े रहे | इसके पश्चात् उन्होंने नाटक में अभिनय करना छोड़ दिया और संगीत-शिक्षा की तरफ रुझान किया | वर्ष १९११ में गायनाचार्य पंडित बखले बुवा से गंडा बँधवाकर व बाकायदा उनका शिष्य बनकर उन्होंने विधिवत रूप से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेना आरम्भ कर दिया | हालाँकि कुछ ही वर्षों में वे दुबारा मराठी संगीत रंगभूमि की तरफ लौट आये |
वर्ष १९१५ में अपने गुरु बखले बुवा की आज्ञा पर उन्होंने ‘गंधर्व नाटक मण्डली’ में प्रवेश किया और उसी वर्ष बड़ौदा में खेले गए ‘संगीत शारदा’ इस नाटक में शारदा की मुख्य भूमिका को निभाया | वर्ष १९१७ - १८ के दौरान बतौर गायक-अभिनेता, इस नाटक मण्डली में उन्होंने लगातार कई भूमिकाएं की |
बालगंधर्व व मास्टरजी के गुरु बखलेबुवा गंधर्व नाटक मण्डली के संगीत विभाग का काम देखते थे | लेकिन ८ अप्रैल १९२२ के दिन बुवा का देहावसान हुआ | गुरुवर्य बुवा ने अपने पुत्र समान पट्टशिष्य मास्टर कृष्णराव के संगीत तथा जीवन को भी सींचा था | उनके स्वर्गवास से गंधर्व नाटक मण्डली का संगीतकार व संगीत शिक्षक का स्थान रिक्त होने से स्वाभाविक रूप से बालगंधर्व ने यह जिम्मेदारी मास्टरजी को सौंप दी | इस तरह मास्टरजी ने विख्यात ‘गंधर्व नाटक मण्डली’ में अपने गुरु बखले बुवा के देदीप्यमान संगीत विरासत को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया | मास्टरजी से उम्र में दस वर्ष बड़े बालगंधर्व मास्टरजी को गुरु समान ही देखते थे | इसी आदर भाव से उन्होंने कभी किसी महफ़िल में मास्टरजी के पश्चात् गायन नहीं किया | मास्टरजी की ६० वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में अपने ध्वनि मुद्रित भाषण में बालगंधर्व कहते हैं, “मास्टर जी मेरे गुरुबंधु हैं और मेरे गुरु भी | उन्होंने हमें सिखाया | मेरे सात नाटकों को उन्होंने धुनें दी है | क्या कहूं ? मैं यह सोचकर बड़ा अभिभूत होता हूँ कि मास्टरजी धुनें बनाते हैं और नारायणराव उन्हें गाता है | मैंने अक्सर उनसे यही कहा है कि आप इतनी प्रभावशाली और कर्णमधुर धुनें देते हैं कि आपकी पुण्यवान कमाई का मैं अनायास ही हक़दार बन जाता हूँ |’’
मास्टरजी गंधर्व नाटक मण्डली के गायक अभिनेता, संगीतकार और संगीत शिक्षक सभी रूपों में एक शीर्ष कलाकार थे | उन्होंने गंधर्व नाटक मण्डली के निम्नाकिंत नाटकों को संगीत दिया :
मास्टरजी ने राजाराम संगीत मण्डली के निम्नांकित नाटक को संगीत दिया :
मास्टरजी ने नाट्यनिकेतन के निम्नांकित नाटकों को संगीत दिया :
सुमति देवी धनवटे द्वारा लिखित निम्नांकित नाटक को मास्टरजी ने संगीत दिया :
इसीके साथ मास्टरजी ने ‘संगीत एकच प्याला’ नाटक के ‘ललना मना’, ‘स्वयंवर’ नाटक के ‘एकला नयनाला’, ‘संशय कल्लोळ’ के ‘मज वरी तयाचे प्रेम खरे तर’, ‘सौभद्र’ के ‘बलसागर तुम्ही वीर शिरोमणी’ इन पदों को बड़ी सुन्दर, सुगठित व मधुर धुनें दी | यद्यपि इस बात का जिक्र इस नाटकों के मूल किताब में किया हुआ नहीं है | लेकिन खुद मास्टरजी ने, उनके शिष्यों ने और कई संगीत-तज्ञों ने इसका जिक्र किया हुआ है |
मास्टरजी के शिष्य स्व. श्री मधुसूदन कानेटकर ने बतौर नाट्य संगीतकार मास्टरजी की संगीत विशेषताओं की मीमांसा की है | वे कहते हैं, “मास्टरजी ने जिन धुनों को बनाया उन्हें ‘रीति’ से बनाया | उनकी स्वर-रचनाओं में एक अंगभूत संतुलन दिखाई देता है, जिसे सुननेवाला निरंतर महसूस करता है | प्रसंग या संदर्भ के अनुकूल समुचित धुन का सूझना इसके लिए निस्सन्देह आपके पास एक प्रतिभा होनी चाहिए | ऐसी प्रतिभा मास्टरजी में थी | धुन बनाना और उसे रंगमंच पर प्रस्तुत करना इस पूरी प्रक्रिया के दौरान वे नट-गायक को जिस तरह से तालीम देकर उसे तैयार करते थे, उनकी खास विशेषता थी, जिसके लिए वे प्रख्यात थे |”
मास्टरजी ने नाटक मंडलियों में बतौर गायक नट कुछ पुरुष किरदार और अधिकांश स्त्री किरदार निभाए | गंधर्व नाटक मण्डली में उन्होंने निम्नांकित भूमिकाएं अदा की :
जब १९३४ में गंधर्व नाटक मण्डली तिरोहित हो गई, तो मास्टरजी शास्त्रीय संगीत के जलसे, सिनेमाई संगीत, राष्ट्र-भक्ति परक संगीत आदि संगीत से जुड़ी गतिविधियों में पूर्णतया व्यस्त हो गए | १९४२-४३ के दरमियान की बात है | संगीतकार व समीक्षक केशवराव भोले ने मास्टरजी को पत्र लिखा और नाट्यनिकेतन के एम. जी. रांगणेकर द्वारा लिखित ‘संगीत कुलवधू’ नाटक के लिए अति शीघ्रता से संगीत देने की विनती की | नाटक के पदों को यथोचित धुनों में बाँध कर गायक कलाकारों को उनकी तालीम देना और उन्हें पूर्णतया तैयार कर रंगमंच पर प्रस्तुत करना इसमें केवल एक हफ्ते की अवधि थी | इसके पीछे यह वजह थी कि उस संगीत नाटक को रंगमंच पर खेलने के सार्वजनिक इश्तहार हफ्ते भर पहले ही बंट चुके थे | और-तो-और नाट्य गृह की बुकिंग भी हो चुकी थी | लेकिन मजे की बात कि संगीतकार का अता पता भी नहीं था | ‘संगीत विधा’ संगीत नाटक का आत्मा होती है और यहाँ उसकी तैयारी का कोई नामोनिशान न था | अतः नाट्य संस्था के मालिक और नाटककार रांगणेकर तथा नाटक से जुड़े सभी कलाकारों का अत्यंत तनाव में आना बहुत स्वाभाविक था | नम्र स्वभाव के मास्टरजी ने इस स्थिति व सभी अड़चनों को समझा और बहुत अपनत्व के साथ भोले के अनुरोध का स्वीकार करते हुए केवल एक हफ्ते के भीतर इस नाटक को संगीत-निबद्ध करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया | उन नाट्य पदों को उन्होंने समयानुकूल, समुचित और बहुत ही दर्जेदार धुनें बहाल की | ‘संगीत कुलवधू’ नाटक अत्यंत प्रसिद्ध हुआ | मास्टरजी ने शास्त्रीय संगीत व भाव संगीत का सुन्दर तालमेल साधते हुए समय की माँग के अनुरूप इन पदों को जिस तरह से धुनें दी, इस नाटक के सभी पदों ने बहुत अधिक ख्याति पाई | खासकर ‘बोला अमृत बोला’ इस भैरवी के पद को तो लोगों ने सिर आँखों पर बिठा लिया था | विशेष बात यह कि केवल एक दिन में मास्टरजी ने इस पद को धुन देकर तुरंत उसकी तालीम शुरू कर दी थी | इस नाटक का ‘भाग्यवती मी त्रिभुवनी झाले’ यह पद भी बतौर प्रथम मराठी नाट्य युगल गीत बहुत ख़ास माना गया |
मास्टरजी की अद्भुत व शानदार संगीत रचनाओं के चलते सवाक फिल्म के ज़माने में अचेत पड़े मराठी संगीत नाट्य जगत में दुबारा चेतना का संचार हुआ | उसके बाद मास्टरजी ने नाट्यनिकेतन के कोणे एके काळी, एक होता म्हातारा, भाग्योदय इन नाटकों को भी शास्त्रीय संगीत व भाव संगीत के सुन्दर मिलाप से शानदार धुनें प्रदान की | आगे के समय में उन्होंने आचार्य अत्रे के अनुरोध पर अभिनेत्री वनमाला की बहन श्रीमती सुमति देवी धनवटे द्वारा लिखित ‘संगीत धुळीचे कण’ इस नाटक के पदों को धुनें दी |