युगपुरुष डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर और तत्कालीन भारत के राज गायक संगीत कलानिधि मास्टर कृष्णराव फुलंब्रीकर अर्थात मास्टर कृष्णराव के समन्वय से आजाद भारत की सर्वप्रथम बुद्धवंदना के अजर-अमर सुर साकार हुए |
भारत की आजादी की खातिर कुछ क्रांतिकारियों ने सशस्त्र क्रांति का मार्ग चुना, तो कुछ अहिंसा के मार्ग पर से चलते हुए आजादी की लड़ाई लड़ते रहे | राष्ट्रप्रेमी मास्टर कृष्णराव ने देश की आजादी के लिए अपने हुनर को अर्थात अपनी संगीत कला को देश हित का साधन बनाया | भारत की आजादी से पूर्व ही वे मातृभूमि के वंदन गीत ‘वन्दे मातरम’ को आजाद भारत का राष्ट्र गान बनाने की खातिर इस गीत के समर्थन में जुटे हुए थे | वर्ष १९३४ में इसी इच्छा से प्रेरित होकर उन्होंने प्रभात फिल्म कंपनी के संगीत स्टूडियों में इस गीत को अलग-अलग धुन में निबद्ध करने की दिशा में कई प्रयास किये और अंततः राग झिंझोटी में इस गीत को निबद्ध किया था | आगे जब १९४७ में भारत आजाद हुआ तब तक राष्ट्रगान के लिए किसी गीत का चुनाव नहीं हुआ था | इसलिए मास्टर जी १९४७ से १९५० के दरमियान भारत के संसद भवन में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू, राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और संविधान समिति के अन्य सदस्यों के समक्ष वन्दे मातरम की स्वकृत धुन की कई तरह से प्रस्तुतियां देते रहे | इन प्रस्तुतियों को अनुभव करनेवालों में भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर भी थे, जिन्होंने अन्य संसद सदस्यों के समेत मास्टरजी के सांगीतिक संघर्ष, उनके सांगीतिक ज्ञान तथा देशनिष्ठा व देशभक्ति का संज्ञान लिया था | भले ही राष्ट्रगान के रूप में वन्दे मातरम स्वीकार नहीं हो सका लेकिन १९५० में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इस गीत को पूर्णतः ख़ारिज न करते हुए सरकारी तौर पर यह जाहिर किया कि ‘वन्दे मातरम’ को बतौर राष्ट्रीय गीत राष्ट्रगान ‘जन मन गण’ जितना ही सम्मान प्रदान किया जाएगा | भारत सरकार के इस निर्णय के पीछे मास्टरजी के आखिरी दम तक किये गए सांगीतिक संघर्ष के योगदान को निस्संदेह बहुत अहम् माना गया है |
उन्होंने मास्टर कृष्णराव से मिलकर अनुरोध किया कि वे बुद्ध वंदना को संगीत में निबद्ध करें | डॉ.अम्बेडकर ने वन्दे मातरम गीत के लिए मास्टरजी की संसद में दी हुई प्रस्तुतियों के दौरान उनकी सांगीतिक प्रतिभा का अनुभव किया था | मास्टरजी ने भी बिना किसी मानदेय के भगवन बुद्ध की सेवा जानकर बड़ी ख़ुशी के साथ डॉ. बाबासाहब के अनुरोध को स्वीकार करते हुए हामी भर दी | इस कार्य से पूर्व मास्टरजी खुद चलाकर मुंबई के सिद्धार्थ कॉलेज गए थे और वहां के प्राचार्य से उन्होंने पाली भाषा का ज्ञान लिया था | बुद्धवंदना के मन्त्र के अर्थ को उन्होंने भली-भाँति जाना और उसके पश्चात् ही त्रिशरण पंचशील को संगीत में पिरोया | मुख्य गायक के रूप में उन्होंने खुद इस वन्दना गीत को गाया और साथ में कोरस का भी बखूबी इस्तेमाल किया | फिर डॉ. बाबासाहब ने इस वन्दना गीत का ध्वनि मुद्रण करवाया और उसकी 78 RPM ध्वनि मुद्रिका प्रकाशित की |
१४ अक्टूबर १९५६ के सम्राट अशोक विजयादशमी के शुभ दिन डॉ. बाबासाहब ने नागपुर में बहुत बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन समारोह आयोजन किया था | उस समारोह में मास्टर कृष्णराव द्वारा संगीतबद्ध और गाई हुई बुद्ध वंदना की ध्वनि मुद्रिका को बजाया गया था |
बुद्ध वंदना के इस महत्वपूर्ण कार्य में डॉ. बाबासाहब के अनुयायी धारवाड़ आकाशवाणी केन्द्र के तत्कालीन संचालक भास्कर भिकाजी भोसले ने बतौर समन्वयक अपना बहुमोल योगदान दिया था | डॉ. बाबासाहब को संगीत की बखूबी समझ थी और वे व्हायलिन, तबला व हारमोनियम जैसे वाद्य बहुत सहजता से बजा लेते थे | मास्टरजी की गाई बुद्ध वन्दना को सुनकर बाबासाहब बड़े खुश हुए | बुद्ध वन्दना की ध्वनि मुद्रिका के प्रकाशन के बाद उन्होंने मास्टर कृष्णराव को भगवन बुद्ध की मूर्ति तथा बुद्ध वांङ्मय प्रदान कर उनका यथोचित सम्मान किया | साथ ही कोरस में सहभागी मास्टरजी की युवा पुत्री प्रभा फुलंब्रीकर (आगे बतौर संगीतकार ख्याति प्राप्त मास्टरजी की ज्येष्ठ कन्या वीणा चिटको ) को अपना पेन भेंट दिया और उनके अनुयायी भास्कर भिकाजी भोसले को अपनी कलाई की घड़ी उतारकर भेंट के रूप में दी थी |
डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर व राज गायक संगीत कलानिधि मास्टर कृष्णराव फुलंब्रीकर जैसे दो महान साधकों की साधना से निर्माण पावन व मंगलमय संगीत कलाकृति बुद्ध वंदना के सृजन की यह कथा वास्तव में अलौकिक है |